इतिहास साक्षी है कि मेरा अतीत रोमांचक अनुभवों की एक अनूठी कहानी है। मैंने वैभव और विध्वंस के अनेक युग जिए हैं। मैंने राजनैतिक उत्कर्ष के शिखरों पर विहार किया है और मैं पराभव तथा उपेक्षा की गुफाओं में भी रहा हूं । मैंने भारत भूमि पर सांस्कृतिक चेतना के दीप जलाए हैं और इत्र की सुरभि से देश-विदेश को सुवासित किया है। एक महान अतीत का स्वामी हूं मैं। मैं कन्नौज हूं ……
अपने अतीत में झांक कर देखता हूं तो स्मृति के पटल पर अति प्राचीन काल से आज तक दृश्य उभरते चले आते हैं। प्राचीन काल में पांचाल, शूरसेन और मत्स्य जनपदों का सम्मिलित क्षेत्र ब्रम्हर्षि देश था मैं इसी ब्रह्मर्षि देश का गौरव , पांचाल प्रदेश का महत्वपूर्ण अंग था। मेरे और कौशल जनपद के मध्य विस्तृत नैमिषारण्य अपनी सघन हरीतिमा में तपोवन के रूप में स्थित था।
उन दिनों पांचाल प्रदेश उत्तर और दक्षिण पांचाल दो भागों में विभाजित था । दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी ।काम्पिल्य के पराभव के बाद दक्षिण पांचाल में मुझे उत्कर्ष मिला। बौद्ध काल में गंगा द्वारा होने वाले व्यापार का प्रमुख केंद्र मै ही था। ऐतिहासिक और पौराणिक ग्रंथों में मुझे अनेक नाम से संबोधित किया गया। बाल्मीकि रामायण में मुझे महोदय कहा गया तो राति मंजरी में मुझे शशि स्थली का नाम मिला ।कुश स्थल ,गाधि पुरी, इंद्रपुरी ,कुसुमपुर और कुशिका नाम से भी मुझे समय-समय पर दिए गए। किंतु कान्यकुब्ज नाम मेरे ऐसे जुड़ा कि आज तक मैं उसी का तद्भव रूप कन्नौज धारण किए हुए हूं। यह नाम मेरी उन बेटियों के साथ घटित त्रासदी का प्रतीक है जिन्होंने वायु देवता के स्वेच्छाचारी आचरण को अस्वीकार कर दिया था
तदवायुना च ना कन्या तत्र कुब्जा कृता परम।
कन्या कुब्ज मिति ख्यातं तत् प्रभूति तत परम ।।
मेरा नाम प्रमाणित करता है कि मैं और मेरे नगर वासी श्राप सह लेते हैं परंतु अन्याय सहन नहीं करते ।
ऐसी अनूठी स्वतंत्र चेतना का संवाहक रहा हूं मैं ।
सत्य तो यह है कि’ महोदय’ राजधानी का नाम था और मेरे प्रदेश का नाम कान्यकुब्ज प्रदेश था उसे समय पाटिल पुत्र और सोनभद्र मेरी पश्चिमी सीमा पर था। दक्षिण में विंध्य पर्वत और नर्मदा तथा यमुना मेरी सीमा बनाती थी ।सरस्वती से गंगोत्री तक मेरा विस्तार था। मुझे ‘महात्माओं’ का देश कहा जाता था। यज्ञ के मंत्रों से मेरा गगन मंडल गूंजता था ।ब्रह्मर्षियों से सेवित महिमा मंडित कान्यकुब्ज था मैं।
मैं कन्नौज हूं ……
भगवान बुद्ध भी मेरी पुणयभूमि पर पधारे थे और 6 मास तक उन्होंने सुरम्य में गंगा तट पर ठहरकर अपनी वाणी से जन-जन में ज्ञान की ज्योति जलाई थी। मुझे स्मरण है मौर्य सम्राट अशोक ने एक ऊंचा स्तूप कपटेश्वरी ग्राम में बनवाया था आज भी उस ध्वंसावशेष स्थित हैं। जब चीनी यात्री फाह्यान मेरा दर्शन करने आया तो वह मेरी भव्य भौगोलिक और समृद्ध सांस्कृतिक गरिमा देखकर आश्चर्यचकित रह गया। तब मेरे अति विशाल दुर्गा के प्राचीर के नीचे ही पतित पावनी गंगा कल कल स्वर्ण निनादित करते हुए प्रवाहित होती थी।
जैन तीर्थंकरों ने भी मेरी धरा को पवित्र किया था ‘ऋषभदेव’कन्नौज से जुड़े थे। मेरी पश्चिमी और स्थित छिप्पटी में आज भी जैन धर्मावलंबी रहतें हैं और सुप्रसिद्ध जैन मंदिर भी यहां है।
मौर्य के बाद शुंग ,मित्र कुषाण वंशी शासको के रूप में कई शासक देखे हैं आज भी मेरी धरती के गर्भ में ‘सिक्के ‘दबे हुए हैं ।कभी-कभी वर्षा से धुलकर ये मुद्राएं प्रकट होती हैं। और मेरे संग्रहालय में आज भी यह मुद्राएं मेरे उस अतीत की कथा कह रहीं हैं ।
गुप्त काल का कलात्मक उत्कर्ष भी मैंने जिया है मृण मूर्तियां उस युग को साकार करती हैं ।छठी शताब्दी में मौखरी वंश ने मुझे अपनी सत्ता का केंद्र बनाया ।ईशान वर्मा ,सर्व वर्मा और गृह वर्मा क्रमशः मेरे राजा बने।गृह वर्मा के विवाह में मुझे एक नई सांस्कृतिक गरिमा प्रदान की ।थानेश्वर के राजा प्रभाकर वर्धन की पुत्री राज्य श्री के साथ मेरे प्रिय कुंवर गृह वर्मा का शुभ विवाह संपन्न हुआ। उस विवाह का वैभव पूर्ण और कलात्मक वर्णन महाकवि बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्ष चरित’ के पृष्ठों पर आज भी अंकित है।
राज्यश्री को वधू के रूप में पाकर झूम उठता मैं ,गली-गली घर आंगन हाट चौबारों में उस दिन उत्सव हुआ गीत गाए गये।राज्यश्री का भाई पुष्यभूति का वंशज महाराज प्रभाकर वर्धन का प्रतापी पुत्र खड्ग लेकर आ पहुंचा था। उस प्रतापी राज कुंवर हर्ष ने शशांक और देवगुप्त को दंडित किया ,अपनी स्नेहशीला बहन राज्यश्री को आत्मघात से बचाया और भाई-बहन के स्नेह की अमर गाथा का स्नेहिल इतिहास मेरी इस सांस्कृतिक भूमि पर लिखा गया।
‘सकलोत्तरातथ नाथ’ की उपाधि से विभूषित सम्राट हर्ष का युग मेरे इतिहास का स्वर्ण युग है। मैं उन्नति के चरम शिखर पर था। नगर में 100 बौद्ध विहार थे।200 भव्य सूर्य मंदिर थे ।सैकड़ो मंदिरों में भूत भावन की प्रतिमाओं की पूजा होती थी। क्योंकि सम्राट हर्ष शैव थे ।आज भी ‘बाबा गौरीशंकर मंदिर ‘के नाम से सुप्रसिद्ध मंदिर नगर वासियों की आस्था का केंद्र है और हर्ष- कालीन मेरे वैभव का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।उस समय इस मंदिर में एक हजार पुजारी और सेवक शिव सेवा हेतु सम्राट हर्ष द्वारा नियुक्त किए जाते थे। उस समय की स्मृतियां मेरे मन को गुदगुदाती हैं। स्वच्छ जलाशय थे ,जिनमें कमल पुष्प खिले रहते थे ,मेरे नागरिक रेशमी वस्त्र पहनते थे ।फल फूलों से सुसज्जित उद्यान शोभायमान थे। सुंदरिया पुष्पन और आभूषणों से श्रृंगार करती थीं
।मेरे नागरिकों की भाषा परिमार्जित थी ।बाणभट्ट और मयूर भट्ट जैसे कवि राज सभा की शोभा थे सम्राट हर्ष स्वयं नाटककार थे ।नगर में चारों ओर सांस्कृतिक वातावरण था ।कला और साहित्य के अभिनव उत्कर्ष का युग था वह ,उसी समय मैं सुगंधित उद्योग का केंद्र बना था। मेरे उद्यमी सपूत दक्षिण से चंदन, गंगा मार्ग से नावों द्वारा लातेथे ।पुष्पों के असंख्य खेत नगर की सीमाओं पर थे। अंगराग , आलेपन पर एवं विविध सुगंधियों के औद्योगिक निर्माण का केंद्र था मैं। चीनी यात्री ह्वैनसांगयहां से वापस गया तो सम्राट हर्ष ने सुगंधियों के उपहार चीन के सम्राट के लिए भेजे थे।
युग बदल गया किंतु राज्यश्री और हर्ष के युग में विकसित सुगंध उद्योग आज भी मेरे नाम का पर्याय बनकर देश-विदेश में सुगंध बिखेर रहा है। सम्राट हर्ष के युग में मेरी धरती पर सर्व धर्म समवाय का अद्भुत सम्मेलन संपन्न हुआ जिसमें ब्राह्मणों, बौद्धों जैनों और विदेशी विद्वानों ने भी भाग लिया था ।राष्ट्र को नई दिशा दी है मेरे सपूतों ने।मैं कन्नौज हूं…..
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मेरा अतीत अतिविस्तृत है अति महान हैविस्तार से कहूंगा तो महाग्रंथ बन जाएंगे। सिंहावलोक करता हूं तो प्रमुख दृश्य स्मृति पटल पर उभरते हैं। हर्ष के बाद मेरा वैभव विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों से बारंबार ध्वस्त किया गया।
सन 648 में सम्राट हर्ष नहीं रहे ।मैं दुख और अवसाद के महासागर में डूब गया। साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया। आठवीं शताब्दी में यशोवर्मा ने मुझे पुनः अपनी छत्रछाया दी किंतु कश्मीर के राजा ललितादित्य ने यशो
वर्मा से मुझे छीनकर कश्मीर राज्य का अंग बना लिया किंतु उसकी मृत्यु होने पर मैं पुनः स्वतंत्र हो गया ।
इसके बाद तीन आयुधवंशी राजाओं की तलवारों की झंकारों से मेरे मैदान गूंजे ।फिर नागभट्ट ,मिहिर भोज और महेंद्र पाल का शासन काल भी मैंने देखा ।नवी शताब्दी में गुर्जर प्रतिहार वंश के राजाओं ने मुझे अपनी सत्ता का केंद्र बनाया। इस प्रतिहार युग में हिंदू धर्म भारतीय संस्कृति और कला कौशल का प्रमुख केंद्र बन गया। शिव, विष्णु और देवी के अनेक भव्य मंदिर इस युग में मेरी धरा पर बनाए गए। असंख्य की प्रतिमाएं उत्कीर्ण करके उनमें प्राण प्रतिष्ठा की गई। आज भी प्रतिहार कालीन कलावशेष कन्नौज नगर एवं उसके आसपास के क्षेत्र में बिखरे हुए हैं। मकरंद नगर में स्थित विराट विष्णु चौधरियापुर में नृत्य गणेश एवं अनेक व्यक्तिक संकलनों में संकलित कल्याण सुंदरम गणपति, दुर्गा ,विष्णु की प्रतिमाएं उसी युग की कला के गीत गाती है।पुरातत्व संग्रहालय कन्नौज में आज भी उसे युग की कलात्मक प्रतिमाएं संकलित हैं।उमा महेश्वर, शिव का विषपान सूर्य अर्धनारीश्वर ,कार्तिकेय महिषासुर मर्दिनी दुर्गा आदि की प्रतिमाएं उसे युग की कला साकार कर रही है ।
मेरे संग्रहालय में स्थित सप्तमातृका में चार देवी इंद्राणी ब्राह्मणी वाराही और चामुंडा की प्रतिमाएं वाशिंगटन में आयोजित भारत महोत्सव में मेरी प्रतिहार युगीन भव्य कला कीर्ति पताका बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में फहरा चुकी है ।प्रतिहार काल ने मुझे गौरवान्वित किया है ।
वस्तुतः गुप्तकालीन एवं प्रतिहार कालीन कलाकारों ने अपनी कला से मुझे अलंकृत किया था ।आज भी उनके स्वेदबिंदुओं में खिले कला पुष्प मेरी अमूल्य धरोहर बने हुए हैं।इसी युग में जैन तीर्थंकरों की भव्य प्रतिमाओं की स्थापना भी मेरे पश्चिमी छोर पर स्थित जैन मंदिरों में हुई ।आज भी छिपट्टी मोहल्ला उसे पुरा संपदा को संजोए हुए हैं।
मैं कन्नौज हूं …..
सबै दिन जात ना एक समान
समय बदला मेरे भी अंधेरे दिन आए ।आज भी स्मरण है मुझे की 20 दिसंबर 1018 का वह अंधेरा दिन- 13 दिन जब महमूद गजनवी ने मुझ पर आक्रमण किया था ।उसने मुझे लूटा और ध्वस्त किया था। उस समय संगमरमर से बने हजारों भव्य भवन मुझे सुशोभित करते थे ।उसने उन्हें तोड़ा नरसंहार किया, मैं भी रोया अपने नागरिकों के साथ ,उसे विध्वंस और संहार का स्मरण आज भी कंपा देता है मुझे ।मैं कन्नौज हूं ….
फिर आया गढ़वाल वंश…. यशस्वी गोविंद चंद्र की खड्ग ने मेरी रक्षा की, राष्ट्रकूट चोल और चालुक्य राजाओं से मैत्री करके मुझे सुरक्षा दी और मुसलमानो को आगे बढ़ने से रोका ।उनके सुपौत्र महाराज जयचंद के शासनकाल( 1170 -94 )ईस्वी में मेरी राज्य सीमाओं का सर्वाधिक विस्तार हुआ ।सम्राट जयचंद के पास अति विशाल चतुरंगिणी सेना थी ।उनकी सेना इतनी विशाल थी कि यदि उसका अग्रभाग रण क्षेत्र में पहुंच जाए तो भी पृष्ठ भाग परकोटे के भीतर ही होता था ।उनके कालिंजर के मदन देव वर्मा को हराकर ‘दल पंगुल’ की उपाधि धारण की थी। यवन राजा शहाबुद्दीन गोरी तो कई बार पराजित करके उसे भगाया था और’ निखिल यवन’ छयकर की उपाधि पाई थी। उसकी सेवा में सभी वर्णों के सैनिक थे ।वह समन्वयवादी सम्राट था ।उसकी एक राज्यसभा कन्नौज में लगती थी, दूसरी काशी में क्योंकि नेपाल तक उसके राज्य का विस्तार था ।सम्राट जयचंद कवियों मनीषियों और विद्वानों का सम्मान करते थे ।
नैषध चरित के रचयिता महाकवि श्री हर्ष को जयचंद की राज्यसभा में आते देखा है मैंने ।सम्राट स्वयं उठकर ‘तांबूल द्वय ‘के द्वारा उस महाकवि का अभिनंदन करते थे और फिर महाकवि श्री हर्ष की अलंकृत ओजस्वी वाणी से मेरा वायुमंडल गुंजित होता था। रस वर्षा में भींजता था मैं।
मैं कन्नौज हूं ….महोबा केपरमार जी देव द्वारा निष्कासित आल्हा उदल को मैंने ही शरण दी थी। आज भी ‘रिजगिर’ में उसे महल के ध्वंसावशेष उस युग की गाथा गा रहे हैं जब जयचंद्र ने इन वीरों को शरण देकर सम्मानित किया था ।मेरे सपूत लाखन राना ने अपने प्राणों का बलिदान करके मैत्री का उज्जवल इतिहास रचा था। उन सब की यादें मेरे मन में सो रही हैं। प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु आने पर जब चौपाल में ढोलक के साथ आल्हा के स्वर गूंजते हैं तब मुझे जयचंद, आल्हा ऊदल लाखन और जागनिक की याद आते हैं। पदमा रानी की स्मृति मन और नयन गीले कर जाती है ।’पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता ने ऐतिहासिक अपराध किया और यह झूठा कलंक मेरे सपूत पर अपनी कल्पना से लगा दिया कि जयचंद्र ने ही गोरी को बुलाया था यह नितांत असत्य है। सत्य तो यह है कि जयचंद्र ने गोरी से चंदवार (इटावा) के मैदान में स्वयं ही अपनी सेवा के साथ जमकर युद्ध किया और उसी युद्ध में उन्होंने अपने प्राण गंवाए।जयचंद वीर था, विद्वान था ,देशभक्त था कदापि देशद्रोही नहीं था। इलियट और डाउसन ,डॉक्टर बेनी प्रसाद शर्मा ,डॉक्टर विमल चंद्र पांडेय आदि किसी भी इतिहासकार ने जयचंद को देश को देशद्रोही नही माना है।
अब आज के विद्वानों का यह कर्तव्य है कि मेरे इतिहास को पुनः पढ़ें और इस कलंक से मुझे तथा जयचंद्र को मुक्त कराएं।भ्रांति के बदले छट जाएंगे तो सत्य का सूर्य जगमगएगा।
मैं कन्नौज हूं…
मेरा इतिहास कई मोड़ों से मुड़ा है। उसमें उन्नति और अवनति के कई अध्याय समाहित है ।मेरी यादों में उभर रहा है यवनों का शासन। कई खट्टी मीठी यादें हैं उसे जमाने की मेरे ही क्षेत्र में गंगा पार बिलग्राम में हुमायूं जब शेर खा(शेरशाह सूरी) से लड़ाऔर हार गया तब गंगा पार करके मेरे क्षेत्र के दनियापुर ग्राम के तट पर आया था। कन्नौज के एक सपूत (मिश्ती) ले हुमायूं ने की जान बचाई थी ।शहंशाह के प्राणों की रक्षा करने वाले उसे सपूत की कब्र आज भी अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह के पास बनी हुई है। अकबर के समय में मैं आगरा प्रांत का एक विभाग था ।जिसमें 80 परगने या महाल शामिल थे। लोक कवि घाघ उसी युग में हुए। जहांगीर के उस्ताद कन्नौज के थे। जहांगीर कन्नौज से राज करता था जहांगीर ने कन्नौज का शासन कलम और तलवार के धनी अब्दुलर्रहीम खान खाना को सौंप दिया था। याद है मुझे वह दिन जब रहीम मेरी धरती पर बैठकर दोहे रचते थे। मैंने उनके दोहे सुने हैं और सोहर भी। रहीम के दोहे और सोहर शुद्ध कनौजी भाषा में अर्थात मेरी बोली में ही रचे गए। मैं कन्नौज हूं….
लंबी गाथा है मेरी ।अंग्रेज आए और पूरे देश पर छा गए ।फतेहगढ़ को उन्होंने अपनी छावनी बनाया परंतु 1857 की क्रांति का रक्त रंजित इतिहास रचा गया तो मेरे सपूतों ने ही कुसुमखोर के घाट पर फतेहगढ़ से भागते हुए अंग्रेजों के नांवो पर हमला करके फिरंगियों को जल समाधि दी थी ।फर्रुखाबाद गजेटियर में इसका उल्लेख है जब अंग्रेजों ने दमन चक्र चलाया और बिठूर के नाना राव पेशवा अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंक कर भागे तो नाना भाग कर मेरे ही आंचल में छुपे थे ।वे सराय मीरा के पास जो चौधरियापुर के विश्वनाथ मंदिर में बहुत दिनों तक सन्यासी वेश में रहे ,उसके बाद वे नैमिशारण्य चले गए ।
मैं कन्नौज हूं …मेरे इतिहास के पृष्ठ हवा के झोंके से फड़फड़ाते हैं बीसवीं शताब्दी के गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम का यज्ञ रचा गया। 22 सितंबर 1929 को महात्मा गांधी जी आचार्य कृपलानी के साथ आए थे। और मेरे ग्वाल
मैदान में उनकी सभा हुई थी ।1940 में वीरवार नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आकर फूलमती देवी के प्रांगण में अपनी ओजस्वी वाणी से मुझे गौरवान्वित किया था ।कौन-कौन आया था मुझे जगाने मुझे उठाने और अपनी बात सुनने के लिए उन सब की नामावली बहुत लंबी है। फिर भी जो भुलाए नहीं बोलते वह है राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और महाप्राण निराला उनकी वाणी ने मेरे परिवेश को परितृप्त किया। मेरे नगर वासियों को एक नई दिशा दृष्टि थी। मुझे या आज भी उनकी याद आ रही है जो मेरे थे परंतु मेरे से दूर चले गए और मेरी कीर्ति सुरभि को बिखेरते रहे ।सम्राट अशोक के पुत्र जोलक (जलौक) मेरी धरती से ही श्रेष्ठ चतुर्वर्णों को कश्मीर ले गए थे ।उन्होंने वहां जाकर नया इतिहास रचा। गुरुदेव रविंद्र नाथ ठाकुर के पूर्वज मेरी धरती से ही बंगाल गए थे और महाकवि जयशंकर प्रसाद के पूर्वज सुघंनी साहू के पितामह भी मेरे ही सपूत थे ,जो काशी जाकर बस गए। क्रांतिवीर मंगल पांडे के पूर्वज भी मेरी धरती से ही निकाल कर गए थे। मैं कन्नौज हूं…. मेरा अतीत ऐतिहासिक धरोहरों और पुरातात्विक संपदाओं से परिपूर्ण है। मेरा वर्तमान खस ,गुलाब ,केवड़ा बेला, मेहंदी और मिट्टी के इत्र से सुवासित है ।मेरे खेतों में फूल खिलते हैं और उद्यमी सपूत पसीना बहा कर उनकी सुगंध को शीशियों में कैद कर लेते हैं ।मेरी धरती पर बाबा गौरी शंकर भी है और हाजी पीर भी जगन्नाथ जी की रथ यात्रा हो या उर्स सब मिलजुल कर भाग लेते हैं। मैं कन्नौज हूं
स्वाधीनता के पूरे 50 वर्ष बाद 18 सितंबर 1997 को मुझे जनपद का प्रशासनिक स्वरूप प्राप्त हुआ। अब मेरी परिधि में तीन तहसीलें कन्नौज तिर्वा और छिबरामऊ समाहित है। जनपद बनने से मेरा त्वरित एवं बहुआयामी विकास हुआ है सड़कों की स्थिति सुधरी है नए पुल बने हैं आगरा लखनऊ एक्सप्रेस वे बना है शासकीय की भवनों की संख्या बढ़ी है । असंख्य विद्यालय खुल गए हैं। तथा प्राइवेट शासकीय महाविद्यालय पॉलिटेक्निक विद्यालय और मेडिकलकॉलेज ने शिक्षा का बहुविध विस्तार किया है ।स्वास्थ्य सेवाएं बढीं है ।स्टेडियम संग्रहालय और वृद्ध आश्रम भी बन गया है ।नई-नई योजनाएं और जनपद का स्वरूप संवार रही है। मेरी मुख्य कृषि उपज आलू है ।अनेक कोल्ड स्टोरेज बन गए हैं ।इत्र मेरी आत्मा की सुवास है। सिंथेटिक परफ्यूम के इस युग में मेरे सपूतों द्वारा बनाया गया प्राकृतिक इत्र सारे विश्व में प्रसिद्ध है ।एफ ०एफ ०डी ०सी० में नया शोध केंद्र बन गया है जहां देश-विदेश के उद्यमी प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। गंगा कन्नौज की जीवन धारा है उसका प्रदूषण देखकर मुझे रोना आता है। अब उसके घाटों पर सुधार हो रहा है मेरी बोली कन्नौजी बोली है जिसमें गंगा का प्रवाह है और गट्टे की मिठास है ।लेकिन कन्नौजी बोली उपेक्षा की शिकार है ।मेरे सपूत उसका भी सर्वांगीण विकास करें कन्नौज में आकाशवाणी केंद्र बने यह मेरी अभिलाषा है सच तो यह है कि मैं समय के साथ चल रहा हूं और बदल भी रहा हूं ।
तिर्वा में श्री यंत्र पर स्थापित त्रिपुर सुंदरी का मंदिर जो आज अन्नपूर्णा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है ।चिंतामणि में प्रभु के चरण आस्था के केंद्र है ।तो जैन दिगंबर में ओम नमो अरिहंताणम के स्वर गूंजते हैं। हाजी बाबा का भव्य उर्स होता है फिर रामलीला भी होती है और भद्रकाली की कृपा से दुर्गा उत्सव, साईं बाबा के मंदिर की आरती भी होती है और नारायण सेवा भी ।
मैं राष्ट्रीय एकता का प्रतीक कन्नौज हूं जहां रामलीला का मैदान है वही कर्बला के ताजिए भी दफ़न होते हैं। नौटंकी का नगाड़ा आज भी चमकता है और दाधिकांदा मेरी सड़कों पर थिरकता है। आल्हा के स्वर चौपाल पर घूमते हैं और आंगनों में लोकगीत के कोल कंठी स्वर रस घोलते हैं। धीरे-धीरे वैज्ञानिक प्रगति से मेरा रूप संवर रहा है ।मेरा विश्वास है कि मेरे सपूत मुझे विकास के पद पर अग्रसर करेंगे ।उद्योग कला साहित्य और संस्कृति के नित्य नए आयाम जोड़ेंगे और मेरे सपूत एक बार फिर मुझे भारत ही नहीं विश्व के मानचित्र पर प्रतिष्ठित करेंगे संपूर्ण विश्व के प्रति कोटेश मंगल कामनाएं
शानदार था भूत
भविष्य भी महान है
अगर संभाले मिलकर
आज जो वर्तमान है -प्रोफेसर रमेश चंद्र तिवारी विराम |
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